Wednesday, November 9, 2022

गीता वदति Gita Vadati

 


भूमिका

मानव जीवन में अनेक चुनौतियाँ और समस्याएँ हैं; जिनका निदान खोजने के निरन्तर प्रयास होते रहे हैं। दर्शन के अनुसार व्यावहारिक जगत् की सभी चुनौतियाँ और समस्याएँ दुःख (हेय) के अन्तर्गत ही परिगणित होती हैं। दर्शन, चिकित्सा पद्धतियों एवं अन्य लौकिक उपायों का ध्येय मानव मात्र के लिए दुःख-निवृŸिा का मार्ग प्रशस्त करना है। सर्वविदित है कि भारतीय सभ्यता, संस्कृति और दर्शन के अनुसार मानव जीवन का परमलक्ष्य दुःख-निवृत्ति ही है। इसे ही मुक्ति, अपवर्ग, कैवल्य और मोक्ष भी कहा जाता है। उल्लेखनीय है कि इसके साधनों या उपायों हेतु आज भी सम्पूर्ण विश्व भारतवर्ष की ओर देख रहा है। श्रीमद्भगवद्गीता, योगदर्शन और आयुर्वेद जैसी भारतीय दर्शन शाखाओं की अथाह लोकप्रियता ने इस तथ्य को सिद्ध किया है। जितनी प्राचीन भारतीय सभ्यता और संस्कृति है; उतना ही प्राचीन यहाँ का दर्शन भी है। सार यह है कि दर्शन यहाँ के मूल में रचा बसा है।

विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित श्रीमद्भगवद्गीता अत्यंत लोकप्रिय, सार्वभौमिक और सर्वोपयोगी ग्रन्थ है। माना जाता है कि भारतीय दर्शन के मूल स्रोत वेद, उपनिषद् तथा पुराणों इत्यादि का सार यही है। इसमें मानव जीवन की चुनौतियों और समस्याओं के समाधान हेतु अनेक उपयोगी साधन बताये गये हैं। इनमें से योग, यथोचित आहार-विहार, नैतिक कर्म, कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग इत्यादि प्रमुख साधन या मार्ग हैं। उल्लेखनीय है कि इसमें प्रत्येक व्यक्ति की अभिरुचि और अभिवृत्ति को ध्यान में रखते हुए परमलक्ष्य प्राप्ति हेतु उपयोगी साधनों की व्याख्या उपलब्ध है। इन्हें आत्मसात् करने के फलस्वरूप व्यक्ति श्रेष्ठ व्यावहारिक जीवन जीते हुए मुक्ति का अधिकारी बनता है। इसके लिए गीता में निहित संदेश का अनुप्रयोग और व्यावहारिक अनुपालन आवश्यक है। ऐसा करने के लिए गीता को ठीक से समझने की आवश्यकता है। इसकी सम्पूर्ण विषयवस्तु परमात्मा, आत्मा, जगत्, सृष्टि, मानव तथा उसके व्यक्तित्व, व्यक्तित्व परिष्करण, कृतित्व और श्रेष्ठ व्यावहारिक जीवन जीते हुए मुक्ति के मार्गों पर केन्द्रित है। ध्यातव्य है कि श्रीमद्भगवद्गीता के उपदेशों को स्पष्ट करने हेतु अनेक भाष्यकारों द्वारा बड़े-बड़े भाष्य, टीकाएँ और व्याख्यात्मक पुस्तकें लिखी गयीं हैं। आधुनिक काल में मानव दुःख से मुक्ति तो प्राप्त करना चाहता है; किन्तु विभिन्न परिस्थितियों और समय की कमी के कारण वह इतने वृहदाकार भाष्यों का आद्योपान्त अध्ययन नहीं कर पाता। कम समय में मुख्य विषयों का अध्ययन करना और समझना आज प्राथमिकता बन चुकी है।

श्रीमद्भगवद्गीता में विवेचित समस्त मार्गों को उपादेयता की दृष्टि से रोचक, सरल और अत्यंत सारगर्भित रूप में प्रस्तुत करने वाली एक पुस्तक की आवश्यकता अनुभव हुई। इसीलिए हमने ‘गीता वदति‘ नामक इस पुस्तक में अनेक विषयों को इसी प्रकार से प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास किया है। शिक्षाजगत्, भारतीय वांग्मय, दर्शन, संस्कृति, धर्म और सामान्य वर्ग के सभी पाठकों की सुविधा को ध्यान में रखते हुए श्रीमद्भगवद्गीता के सम्पूर्ण अध्यायों का अध्ययन करके यह पुस्तक लिखी गयी है। श्रीमद्भगवद्गीता पर आधारित पुस्तकों से यह इसलिए भिन्न है; क्योंकि इसमें मूल ग्रन्थ से उपयोगी श्लोकों को भिन्न-भिन्न विषयों में वर्गीकृत करके सामान्य व्यक्ति की सुविधा के अनुरूप सुसमायोजित और व्याख्यायित करने का प्रयास किया गया है। विषयों को अधिक विस्तार न देते हुए उन्हें सामान्य पाठकों के लिए सुग्राह्य बनाया गया है। विश्वास है कि इस पुस्तक का अध्ययन करके जनसामान्य भी श्रीमद्भगवद्गीता के गूढ़ उपदेशों का व्यावहारिक उपयोग करते हुए जीवन की चुनौतियों का सामना कर सकेगा। वह दुःख से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करते हुए; व्यावहारिक जीवन रूप से व्यक्तिगत और सामाजिक उन्नति का पथ प्रशस्त कर सकेगा।

पूर्वोल्लिखित है कि श्रीमद्भगवद्गीता को भारतीय दर्शन का सार माना जाता है। यह जानना आवश्यक है कि ‘दर्शन‘ शब्द संस्कृत की ‘दृश्‘ धातु से व्युत्त्पन्न है। दृश् का सामान्य अर्थ है- देखना; किन्तु इसके अन्य अर्थ- ज्ञान, सर्वेक्षण, निरीक्षण और समीक्षा इत्यादि भी हैं। दर्शन एक प्रक्रियात्मक शब्द है; ‘दृश्यते अनेन इति दर्शनम्‘ अर्थात् जिसके माध्यम से देखा जाए वह दर्शन है। उल्लेखनीय है कि यहाँ दर्शन सामान्य ढंग से देखना नहीं; अपितु गहन चिंतन, निरीक्षण, मनन, ज्ञान, समीक्षा, विवेक, अवबोध और प्रत्यक्ष रूप से जानना है। जिस विषय में यह सभी समाहित है; वह दर्शनशास्त्र है। दर्शन भारतवर्ष के लिए कोई अद्भुत क्रिया नही;ं अपितु यह यहाँ के आबालवृद्ध में रचा बसा है। प्राचीन काल में प्राकृतिक संसाधनांे की पर्याप्तता और वातावरणीय अनुकूलता थी; इसीलिए मूलभूत आवश्यकताओं की परिधि से उच्च स्तर का बौद्धिक चिंतन प्रारंभ से ही यहाँ के जनमानस में व्याप्त रहा। इसी का प्रभाव है कि यहाँ का सामान्य बालक भी नचिकेता के रूप में भी उपनिषद् जैसी दर्शन परम्परा का संवाहक बना।

आज वेद, उपनिषद् एवं श्रीमद्भगवद्गीता को विश्व की अनेक भाषाओं में अनूदित करके समझने का प्रयास किया जा रहा है; किन्तु आश्चर्यजनक कि इनके मूल में उपस्थित गूढ़ निहितार्थ तक पहुँच पाना आज भी पूर्णरूपेण संभव नहीं हो सका। विदेशियों द्वारा बार-बार भारतीय ज्ञान से परिपूर्ण अकूत ग्रन्थालयों को जलाकर मिटाये जाने पर भी यहाँ के ज्ञान-विज्ञान को समाप्त नहीं किया जा सका। वस्तुतः भारतीय दर्शन एक ऐसी अमृतधारा है; जो अनन्त काल तक मानव जीवन को अविरल प्रवाह से अभिसिंचित करती रहेगी।

भारतीय सभ्यता के प्रारम्भिक काल में कुछ प्रश्न ऐसे थे जिनसे दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ जैसे- मैं कौन हूँ, मेरा जन्म किस कारण हुआ, मैं कहाँ से आया, क्यों आया तथा कहाँ जाऊँगा इत्यादि। इस प्रकार मनुष्य यह भी सोचने लगा कि क्या मेरा लक्ष्य भी पशु-पक्षियों के सामान शयन, भोजन और मैथुन ही है या इससे कुछ भिन्न। इन सभी प्रश्नों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था कि दुःखों से मुक्ति का उपाय क्या हो सकता है। ये दुःख मात्र मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बंधित नहीं अपितु आत्यंतिक प्रकृति से सम्बंधित थे। इस प्रकार दुःखों के निवारण हेतु प्राकृतिक शक्तियों की उपासना का क्रम प्रारंभ हुआ; जिसने कालान्तर में वेद-ऋचाओं का रूप धारण किया। ध्यातव्य है कि वेद, उनसे प्रस्फुटित (सहमत) एवं विलग दर्शन विभिन्न शाखाओं के रूप में पल्लवित हुए। वेद सिंद्धांतों से सहमत दर्शन आस्तिक एवं जो असहमत थे वे नास्तिक कहलाये। आस्तिक दर्शन छः (षड्दर्शन) हैं- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा तथा वेदांत। नास्तिक दर्शन तीन हैं- चार्वाक्, जैन एवं बौद्ध। भारतीय दर्शन के अन्तर्गत षड्दर्शन के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रमुख परम्पराएँ भी परिपुष्ट हुई हैं; जैसे पुराण, उपनिषद् और महाकाव्य। रामायण एवं श्रीमद्भगवद्गीता के द्वारा अधर्म पर धर्म की विजय का उद्घोष करने वाले दर्शन महाकाव्य परम्परा के हैं। दुःख-निवृत्ति, बौद्धिक जागृति, स्फूर्ति, आचरणगत नियमन, भगवद्भजन, कर्म, ज्ञान एवं भक्ति इत्यादि द्वारा व्यक्तिगत तथा समष्टिगत उन्नयन का प्रतिपादक भारतीय दर्शन विश्व को ऋषि-मुनियों की अनमोल भेंट हैं। यह जानना आवश्यक है कि दर्शन के रूप में श्रेष्ठ मानवीय चिंतन दर्शनशास्त्र के तीन अनुभागों की संरचना करता है। पहला- तत्त्व मीमांसा अर्थात् सृष्टि के मूलतत्त्व पर केन्द्रित चिंतन। दूसरा- ज्ञान मीमांसा अर्थात् सृष्टि के मूलतत्त्व को जानने की क्रिया अर्थात् ज्ञान एवं उसके साधनों का विश्लेषण। तीसरा- नीति मीमांसा अर्थात् एक सुव्यवस्थित मानव समाज के निर्माण हेतु आचरणगत नियमों का विवेचन।

उल्लेखनीय है कि श्रीमद्भगवद्गीता की तत्त्व, ज्ञान तथा नीति मीमांसा मात्र शुष्क ज्ञान की बात नहीं करती; अपितु व्यक्ति को उत्कृष्ट जीवन जीने की कला सिखाती है। मानव मात्र को कल्याण हेतु इसका विधिवत् अध्ययन तथा इसमंे प्रतिपादित मार्गों का अनुगमन करना चाहिए। इसीलिए आत्मकल्याण हेतु धर्म, जाति, संप्रदाय तथा राष्ट्रीयता जैसी परिधियों से ऊपर उठकर भारतीय दर्शन की श्रेष्ठ धरोहर श्रीमद्भगवद्गीता को समझना आधुनिक काल में भी उतना ही प्रासंगिक है; जितना पहले था। यही कारण है कि श्रीमद्भगवद्गीता का विश्व की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद हो चुका है और इस पर निरंतर शोध भी जारी हैं।

इसी क्रम में ‘गीता वदति‘ नामक यह पुस्तक जनसामान्य हेतु श्रीमद्भगवद्गीता को व्यावहारिक, सरल और सारगर्भित ढंग से प्रस्तुत करने का विनम्र प्रयास है। पुस्तक की विषयवस्तु पर चर्चा करने से पूर्व श्रीमद्भगवद्गीता की ऐतिहासिक और औपदेशिक पृष्ठभूमि को समझना अनिवार्य है। भारतीय वांग्मय में मानव सभ्यता के चार युगों का वर्णन प्राप्त होता है- सत्, त्रेता, द्वापर और कलि युग। इन युगों के आदर्श व्यक्तित्व क्रमशः सत्यवादी राजा हरिश्चन्द्र, कर्त्तव्यनिष्ठ मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम तथा धर्मसंस्थापक जगत्गुरु श्रीकृष्ण जैसे महापुरुष हुए। सर्वविदित है कि श्रीराम और श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। श्रीमद्भगवद्गीता भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिए गए उपदेशों का व्यवस्थित स्वरूप है; इसीलिए इसे श्रीभगवान का गीत कहकर सम्बोधित किया गया। अतः इसका शीर्षक हुआ श्रीमद्भगवद्गीता; जिसे संक्षिप्त सम्बोधन में गीता कहा जाता है।

उल्लेखनीय है कि द्वापर युग में इतिहास के सबसे बड़े युद्धों में से एक ‘महाभारत‘ नामक युद्ध हुआ। इस युद्ध को केन्द्रित करके महर्षि वेदव्यास ने ‘महाभारत‘ शीर्षक से महाकाव्य की रचना की। श्रीमद्भगवद्गीता उसी महाकाव्य का एक अंश है। चूँकि यह महाकाव्य युद्ध पर आधारित है; इसलिए हमें महाभारत नामक युद्ध की पृष्ठभूमि संक्षेप में जाननी चाहिए। उल्लेखनीय है कि क्षत्रिय चन्द्रवंशी राजा कुरु की अगली पीढ़ियों में धृतराष्ट्र तथा पाण्डु नामक दो भाई हुए। धृतराष्ट्र के सौ पुत्र (दुर्योधन और 99 अन्य) कौरव और पाण्डु के पाँच पुत्र (युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव) पाण्डव कहलाये। कुरु साम्राज्य को लेकर इनमें भूमि विवाद से युद्ध की स्थिति उत्पन्न हो गयी। श्रीकृष्ण पाण्डवों के फुफेरे भाई थे; जिन्होंने उस युग में अनेक अराजक और राक्षसी शक्तियों का नाश किया था। इसीलिए वे युगद्रष्टा और धर्मसंस्थापक की संज्ञा से विभूषित हुए। कौरव-पाण्डव राज्य विवाद के समाधान हेतु युद्ध तय होने से पूर्व श्रीकृष्ण ने शान्तिदूत बनकर कौरवों को समझाने का प्रयास किया। उन्होंने पाण्डवों को केवल पाँच गाँव देने और शेष साम्राज्य कौरवों को स्वयं रखने का प्रस्ताव दिया। दुर्योधन ने कहा कि बिना युद्ध के पाण्डवों को एक सुई की नोंक के बराबर भूमि भी नहीं दी जाएगी। परिणामस्वरूप महाभारत का युद्ध घोषित हुआ। श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर से और उनकी सेना कौरवों की ओर से युद्ध में सम्मिलित हुए। माना जाता है कि तब तक के इतिहास का यह सबसे बड़ा युद्ध था और इसमें तत्कालीन भारतवर्ष के सभी जनपद सम्मिलित हुए थे। यह युद्ध अधर्म और अन्याय का नाश करके चिरशान्ति और धर्म की स्थापना हेतु लड़ा गया; इसीलिए इसे धर्मयुद्ध कहा जाता है। कुरुक्षेत्र नामक विशाल मैदान में जब पाण्डव और कौरव सेनाएँ युद्ध के लिए आमने-सामने खड़े होती हैं; तो अपने बंधु-बांधवों को युद्ध के लिए सामने खड़ा देखकर अर्जुन मोहवश दिग्भ्रमित हो जाते हैं। उन्हें यह लगा कि अपने रक्त सम्बन्धियों से युद्ध करना नैतिकता की दृष्टि से उचित नहीं है। इस प्रकार जब वे शस्त्र उठाने को नकार देते हैं तो भगवान श्रीकृष्ण उन्हें अपने विराट विश्वरूप का दर्शन करवाते हैं। उसी समय अर्जुन के विभ्रम को दूर करने तथा धर्म और कर्त्तव्य स्मरण करवाने के लिए श्रीकृष्ण ने उन्हें श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान उपदेश रूप में दिया। श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश सुनकर ही अर्जुन युद्ध करने को तैयार हुए और घमासान युद्ध के उपरान्त पाण्डव विजयी हुए। इस प्रकार असत्य-अधर्म-अन्याय पर सत्य-धर्म-न्याय की विजय हुई।

उपर्युक्त पृष्ठभूमि के आलोक में मनुष्य को जीवन पाठ पढ़ाने और जीने की कला सिखाने वाली इस पुस्तक की संक्षिप्त विषयवस्तु अग्रलिखित है। यह पुस्तक आठ अध्यायों के माध्यम से गीता के सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक पक्षों को अनुप्रयुक्त तथा व्यावहारिक दृष्टि से प्रस्तुत करती है। हमारा मानना है कि यदि व्यक्ति को दुःखों से मुक्ति प्राप्त करनी है तो सर्वप्रथम उसे अपने व्यक्तित्व को जानना चाहिए। इसीलिए इस पुस्तक में सर्वप्रथम व्यक्ति तथा व्यक्तित्व नामक प्रथम अध्याय के अन्तर्गत आत्मा, शरीर, शरीर का दुःखों से सम्बन्ध, बुद्धि, बुद्धि के तीन प्रकार (सात्त्विकी, राजसी तथा तामसी), मन और इन्द्रियाँ तथा त्रिगुण (सत्त्व, रजस् और तमस्) इत्यादि विषयों को सरल ढंग से समझाया गया है। व्यक्तित्व के पश्चात् मानव को अपने स्वभाव तथा उसे प्रभावित करने वाले कारकों को समझना चाहिए। इस दृष्टि से इस पुस्तक के मानव स्वभाव नामक द्वितीय अध्याय में व्यक्तित्व पर त्रिगुण के स्वभावगत प्रभाव, व्यक्तित्व पर त्रिगुणों का अन्तर्क्रियात्मक प्रभाव, रजोगुण और काम का सम्बन्ध, विषयों और क्रोध का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध, मन तथा इसकी पाँच अवस्थाएँ (क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र एवं निरुद्ध) और व्यक्ति के स्वभाव पर इनका प्रभाव, त्रिगुणों की स्वभावगत अभिव्यक्तियाँ, सत्त्वगुण प्रभावी होने से उत्पन्न सकारात्मक भाव, प्रसन्नता, परमशान्ति, आनन्द, परमगति, स्थितप्रज्ञ के लक्षण, स्थिरबुद्धि, मन-निग्रह तथा समभाव इत्सादि को स्पष्ट किया गया है।

इसके उपरान्त दुःख का स्वरूप एवं मूल कारण नामक तृतीय अध्याय के अन्तर्गत दुःखों का मूल कारण, त्रिगुणों के आपसी विरोध से उत्पन्न चित्तवृत्तियाँ, हेय (दुःख) का स्वरूप, हेतु (दुःख का कारण), अविद्या और उसकी अवस्थाएँ (प्रसुप्त, तनु, विच्छिन्न और उदार) और पंचक्लेश या क्लिष्ट वृत्तियाँ व्याख्यायित किए गए हैं। त्रिदुःख का स्वरूप के अन्तर्गत परिणामदुःख, तापदुःख (आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक दुःख) और संस्कार दुःख, दुःख की प्रकृति और आधार, हान (दुःख निवृत्ति) और हानोपाय (दुःखनिवृत्ति या दुःख को त्यागने के उपाय) इत्यादि जैसे विषय स्पष्ट किए गए हैं। यह सब जानने के उपरान्त व्यक्ति दुःख से मुक्ति के उपाय जानकर ही स्वस्थता, प्रसन्नता और आनन्द से युक्त श्रेष्ठ व्यावहारिक जीवन और मुक्ति का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार मुक्ति की यह यात्रा योगाभ्यास तथा यथोचित आहार-विहार से प्रारम्भ होती है। इसलिए योगाभ्यास तथा यथोचित आहार-विहार नामक चतुर्थ अध्याय में हम योग तथा योगाभ्यास का स्वरूप, योग की सामान्य परिभाषा, अष्टांग योग के अभ्यास, हठयोग के अभ्यास, श्रीमद्भगवद्गीता में योगाभ्यास का निर्देश और सुुफल, इनकी सिद्धि हेतु आवश्यक नियम, आहार, यज्ञ, तप और दान के पृथक-पृथक भेद, यथोचित आहार, सात्त्विक भोजन, भोजन या आहार का महत्त्व, शारीरिक दृष्टिकोण से भोजन का महत्त्व, मानसिक दृष्टिकोण से भोजन का महत्त्व, आध्यात्मिक दृष्टिकोण से भोजन का महत्त्व, योग के अनुसार पथ्य, योग के अनुसार अपथ्य, योग के अनुसार मिताहार, योग के अनुसार निषिद्ध या वर्जित आहार, योग द्वारा निर्देशित शाकाहार के मूल में निहित वैज्ञानिक दृष्टिकोण, शरीर के संघटक तत्त्व और उनकी उपयोगिता, भोजन और जीवन के अनिवार्य घटक रूपी जल, भोजन ग्रहण करने सम्बन्धी आवश्यक नियम, यथोचित विहार या आदर्श दिनचर्या सम्बन्धी सामान्य नियम एवं योगाभ्यास सम्बन्धी सामान्य नियम का यथोचित विवेचन करेंगे।

व्यक्ति के नैतिक (शास्त्रानुकूल) कर्म नामक पंचम् अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को नैतिक (शास्त्रानुकूल) कर्म करने की प्रेरणा, आसुरी व्यक्ति के लक्षण, दैवी व्यक्ति के लक्षण, यज्ञ का तात्पर्य और प्रकार, तप का तात्पर्य, इसकी अभ्यासगत श्रेणियाँ तथा स्वभावगत प्रकार, दान और इसके भेद, त्याग का तात्पर्य और इसके भेद, धृति के भेद और स्वधर्म इत्यादि को साररूप में विवेचित किया गया है। कर्मयोगः सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष नामक षष्ठ अध्याय में हमने कर्म करने की बाध्यता, तीन स्थितियाँ और प्रकार, कर्म निश्चय की तीन स्थितियाँः अकर्म, कर्म तथा विकर्म, तीन प्रकार के कर्मः संचित, प्रारब्ध तथा क्रियामाण, क्रियामाण कर्म के दो प्रकार (नित्य तथा नैतिक) में से नैतिककर्म के अन्तर्गत (कर्तव्य, काम्य, निषिद्ध या अनुचित, नैमित्तिक या नियत कर्म), वर्ण (ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य तथा शूद्र) हेतु ‘स्वधर्म या नियत कर्म, आश्रम (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य, वानप्रस्थ तथा संन्यास) के अन्तर्गत नियत कर्म, कर्मयोग का अभिप्राय, आवश्यक कर्तव्य, कर्म और कर्मफल का त्याग (तमस्, राजस और सात्त्विक), त्यागी के लक्षण, कर्म सिद्धि के पाँच साधन (कर्ता, अधिष्ठान, करण, चेष्टा और दैव), शुद्ध और अशुद्ध बुद्धि युक्त व्यक्ति, कर्म की प्रेरणा, गुणवत्ता की दृष्टि से कर्म के तीन भेद (सात्त्विक, राजस और तामस), कर्ता के भेद (सात्त्विक, राजस और तामस), निष्काम कर्म और इसकी आवश्यकता, निष्काम कर्म का तात्पर्य, निष्काम कर्म का महत्त्व, ईश्वर, कर्मयोगी को बंधन नहीं होता, कर्मयोग की परिणति ज्ञान में, उद्देश्य समान किन्तु कर्मयोग ज्ञानयोग से श्रेष्ठ, सांख्ययोगी और कर्मयोगी के लक्षण और उनकी महिमा, कर्मयोग द्वारा योगारूढ़ व्यक्ति के लक्षण, कर्मयोगी को परमपद तथा कर्मयोग का व्यावहारिक उन्नति और आध्यात्मिक कल्याण के सर्वश्रेष्ठ साधन के रूप में प्रस्तुतीकरण किया है।

ज्ञानयोगः सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष नामक सप्तम् अध्याय में हम ज्ञान तथा ज्ञानयोग का अभिप्राय, ज्ञान के भेद (सात्त्विक, राजस तथा तामस), ज्ञानयोग का विषय और उद्देश्य, ज्ञानयोग के सुफल, ज्ञानी के लक्षण, ज्ञानयोग में परानिष्ठा का महत्त्व, ज्ञानयोग में बाधाएँ, ज्ञाननिष्ठा का विषय, तत्त्वज्ञान के फलस्वरूप ज्ञानयोग द्वारा ईश्वर प्राप्ति और तत्त्वदर्शी ज्ञानियों की शरणागति से प्राप्त ज्ञानयोग द्वारा दुःखनिवृत्ति इत्यादि जैसे विषयों पर चर्चा की है। भक्तियोगः सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष नामक अष्टम् अध्याय में हमने भक्तियोग का मर्म समझने हेतु भक्तियोग का अभिप्राय, सुफल और प्रभाव, व्यक्ति की प्रकृति का भक्ति से सम्बन्ध, व्यक्ति की प्रकृति का भक्ति से सम्बन्ध, सकाम और निष्काम उपासना का फल, सकाम भक्ति, निष्काम भक्ति, भक्तों के प्रकार, श्रेष्ठ भक्त के लक्षण, श्रद्धाः भक्ति की प्राथमिक अनिवार्यता, पराभक्तिः एकनिष्ठ श्रद्धा द्वारा भक्ति का चरमोत्कर्ष, प्रभाव सहित सर्वात्म रूप परमेश्वर और अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप दर्शन और उनकी स्तुति जैसे विषयों पर चर्चा की है।

गीताजी में निर्देशित उपर्युक्त श्रेष्ठ साधनों को अपनाते हुए व्यक्ति अपने व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन लाता है। इससे उसके स्वभाव और आस-पास के वातावरण पर भी गुणात्मक प्रभाव पड़ता है। अच्छा जीवन व्यतीत करने के लिए यह सब आवश्यक है; यह सामान्य और सर्वमान्य बात है। यद्यपि व्यक्तिगत नियम व्यक्ति की अपनी स्वस्थता एवं उत्थान हेतु तो आवश्यक हैं ही; तथापि इनका समाज पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। हम सभी जानते हैं कि व्यक्ति समाज की इकाई है; वह अपने व्यक्तित्व और कृतित्व से अपने परिवार तथा समाज को भी प्रभावित करता है। यदि व्यक्ति अस्वस्थ और असंतुलित रहता है; तो उसकी निराशा, झुंझलाहट, क्रोध तथा हिंसा आदि दुर्गुण अन्य सभी को भी नकारात्मक रूप से प्रभावित करते हैं। यदि व्यक्ति मनोशारीरिक रूप से स्वस्थ और संतुलित रहता है तो वह समाज में भी सकारात्मकता का संचार करता है। इस दृष्टि से शास्त्रीय विधि से निर्धारित कर्म ईश्वर को समर्पित करते हुए निष्काम भाव से करने चाहिए। व्यावहारिक दृष्टि से कर्मयोग श्रेष्ठ है। इसका मुख्य कारण यह है कि यह व्यावहारिक उन्नति और आध्यात्मिक कल्याण जैसे दोनों लक्ष्यों को एक साथ सिद्ध करने का साधन है। दूसरा कारण यह है कि व्यक्ति कर्मयोग का अनुपालन करते-करते ज्ञानयोग के पथ पर स्वयं ही प्रवृत्त हो जाता है। कर्म, ज्ञान और भक्ति इन तीनों मार्गों का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है। सभी परमेश्वर की प्राप्ति, मुक्ति या दुःख निवृत्ति के उत्कृष्ट साधन हैं। अच्छी बात यह है कि अपनी अभिरुचि और सुविधा के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति अपने मार्ग का चयन कर सकता है। ज्ञानमार्ग थोड़ा कठिन है; किन्तु यदि मन में निष्ठा है; तो व्यक्ति ज्ञानयोग के द्वारा दुःख से निवृत्त हो जाता है। व्यावहारिक रूप से जीवन जीते हुए भी व्यक्ति सुख-दुःख से प्रभावित नहीं होता। वह समान भाव से जीवन रूपी नदी के तट पर बैठे हुए व्यक्ति के समान लहरों को देखता है। जीवन की घटनाओं से वह प्रभावित नहीं होता। जिस व्यक्ति को इनमें से किसी भी मार्ग में सुविधा न हो; वह भक्तिमार्ग को अपना सकता है। इस प्रकार व्यक्ति व्यावहारिक जीवन की समस्याओं से मुक्ति प्राप्त करते हुए श्रेष्ठ आध्यात्मिक कल्याण का भागी बन जाता है।

उपर्युक्त पुस्तक को जनसामान्य के लिए उपयोगी बनाने का पूर्ण प्रयास किया गया है। आशा है हमारे नियमित तथा नये पाठकगण-प्रशंसक पढ़कर अपने लिए उपयोगी मार्ग का चयन करते हुए गीताजी के साधनों का अनुगमन और प्रसार कर सकेंगे। साथ ही हमें अपना स्नेह प्रदान करके कृतार्थ करेंगें।

लेखकद्वव

श्रीकृष्ण जन्माष्टमी

डॉ. सती शंकर

डॉ. कविता भट्ट ‘शैलपुत्री‘

भाद्रपद 3 गते, सम्वत् 2079

दिनांक 20 अगस्त, 2022